Tuesday, January 3, 2017

जोशी जी को याद करते हुए

जगदीशचन्द्र जी आज अस्सी के होते। राजनीति में भला अस्सी की उमर भी कोई उमर है। मोरारजी, ज्योति बसु, नरसिंहराव, सब अस्सी पार ही तो क्लाइमेक्स में रहे और छाए। आडवाणी जी भी इसी उमर मे हैं, भगवान उन्हे चुस्त दुरुस्त रखे। इस हिसाब से वे जल्दी चले गए। ईश्वर ने उन्हें जल्दबाज ही गढ़ा था। इसीलिए तो उमर के पहले ही विन्ध्य प्रदेश के विधायक बन गए। जिस उम्र में आज के युवा राजनीति का कहकहरा सीखते हैं उस उम्र में वे सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य हो गए। 1957 में मध्यप्रदेश की पहली विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष बन गए यानी कि 30 वर्ष की उम्र में ही। सफलता के एवरेस्ट में चढने के मामले में वे जल्दबाज निकले। सबसे कम उमर के विधायक, फिर सोपा के राष्ट्रीय नेता, और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष।
जोशी जी मेधा और उर्जा के पुंज थे, और इसी ने उन्हे जीवन भर विकल बनाए रखा। वे लोहिया के वंशधरों में जार्ज फर्नीडीस और मुलायम सिंह यादव व इनके समकलीनों से ज्येष्ठ और श्रेष्ठ थे। मैं जार्ज से भी मिला और मुलायम से भी। दोनों के हृदय में जोशी जी के प्रति अकूत सम्मान भाव। दोनों में इस बात का मलाल भी था कि जोशी जी जैसा महान नेता अस्सी के दशक तक आते आते कैसे हांसिए में चला गया। मुझे याद है अमर सिंह और राजबब्बर के समाजवादी पार्टी में प्रवेश के बाद एक स्थिति ऐसी भी आयी जब जनेश्वर मिश्र को दरकिनार का किसी अन्य को मुलायम सिंह ने राज्यसभा भेज दिया तो जोशी जी ने फोन पर मुलायम से ऐतराज व्यक्त किया और लेख भी लिखा जो देशबन्धु में छपा। फिर जनेश्वर जी राज्यसभा गए। ये मैं इसलिए बता रहा हूं कि जोशी जी ने देशबन्धु के इलाहाबाद लखनउ संस्करण के लिए तैय्यार किया था इस पर बाबू जी (मायाराम सुरजन) की सहमति भी थी। यह वह समय था तब यूपी में अखबारों ने मुलायम सिंह का बायकाट करके रखा था। यानी कि 93 के आसपास की बात। जोशी जी किसी हैसियत में नहीं थे फिर भी वे तत्कालीन लोहियाइयों के पथ प्रदर्शक थे। सेन्ट्रल हाल व इन्डिया इन्टरनेशनल की चहल पहल के रौनक थे जब भी वे दिल्ली में रहते।
विन्ध्य में समाजवाद का मतलब जगदीश जोशी। जोशी जी का ऐसा जादुई सम्मोहन कि 70 तक समाजवादियों के यहां के वही हीरो वही मसीहा। विन्ध्य में लोहिया की त्रयी जोशी, यमुना, श्रीनिवास, में वे सबसे कम उम्र के थे, लेकिन सबके नेता वही थे। श्रीनिवास तिवारी जी, यमुना शास्त्री उनसे उम्र में बडे़ थे पर कमान्डर जोशी जी ही थे। अच्युतानंद मिश्र, और शिवकुमार शर्मा तो जोशी जी से इतने बड़े भक्त थे कि वे जोशी जी में कोई दैवीय शक्ति देखते थे। उम्र में बड़ा होने के बावजूद भी वे तिवारी जी को हमेशा वात्सल्य भाव से देखते थे। तिवारी जी के पास जोशी जी के दृष्टान्तों का इतना मोटा पोथन्ना है कि घन्टों सुनते जाइए जोशी जी का चैप्टर खत्म ही नहीं होगा। बातचीत में वे अक्सर कहां करते थे कि जोशी जी कांग्रेस नहीं छोड़े होते तो सन् 80 में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की शपथ लेते। सन् 72 के चंदौली सम्मेलन में जब जोशी जी ने कांग्रेस में जाने का फैसला लिया तो, तिवारी जी बताते हैं कि हम लोगों के पास उनकी बात मानने के अलावा कोई चारा ही नहीं था, यद्यपि मैं और स्वामी जी (अच्युतानंद) व्यक्तिगत रूप से कांग्रेस में जाने के पक्ष में नहीं थे फिर भी गए। इन्दिराजी जोशी जी से न सिर्फ प्रभावित थीं अपितु वे उनकी मेधा व व्यक्तित्व से मंत्रमुग्ध भी थीं। इसलिए चंदौली के तत्काल बाद ही राज्यसभा ले र्गइं और संसद की कई महत्वपूर्ण समितियों में नामजद कर दिया। जोशी जी उन दिनों इन्दिरा जी के प्रमुख सलाहकारों मे थे। इन्दिरा जी इन्हें बहुत आगे बढ़ाना चाहती थीं लेकिन दो साल के भीतर ही इनका मोहभंग हो गया। उधर जयप्रकाश का आन्दोलन चरम पर था। जोशी जी का समाजवादी डीएनए एक बार फिर हिलोरें लेने लगा और जैसे ही इमरजेन्सी लागू हुई व जार्ज जैसे उनके साथियों को आडा-बेड़ी लगी वैसे ही जोशी जी कांग्रेस से मुक्त होने के लिए छटपटाने लगे। और मुक्त भी हो गए। जोशी जी जब कांग्रेस छोड़कर जाने लगे तब फिर अपने साथियों को याद किया। तिवारी जी बताते हैं कि ‘‘मैने इस बार जोशी जी को ठेठ अंदाज में जवाब दिया-खसम किया बुरा किया करके छोड़ दिया और बुरा किया।’’
जोशी जी की प्रवृत्ति में ठहराव था ही नहीं। वे हर परिवर्तन में संभावनाओं के बीज तलाशते थे। दरअसल वे अन्तर्मन से एक भावुक सर्जक थे। जरा सा घात भी उन्हंे विचलित कर देता। यमुना शास्त्री के भी वे नेता थे। यद्यपि शास्त्री जी और चन्द्र प्रताप तिवारी बहुत पहले ही आचार्य नरेन्द्र देव की धारा को चुन लिया था। इस दृष्टि से समाजवादी रहते हुए भी ये अलग-अलग थे। पर शास्त्री के चेतनमन में जोशी जी की गहरी पैठ थी। तिवारी जी की तरह शास्त्री जी ने भी एक बार कहा था ‘‘यदि जोशी जी 72 के चंदौली सम्मेलन में न गए होते तो जयप्रकाश नारायण के बाद देश के दूसरे क्रम के नेताओं मे वही अग्रणी होते। यह मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे श्री जोशी, शास्त्री जी और तिवारी जी तीनों का वरदहस्त और अटूट स्नेह मिला। कभी-कभी या यों कहे प्रायः ही इन तीनों के बीच में संवाद सेतु का काम करता था। तिवारी जी जोशी जी का तो प्रायः संवाद होता। जोशी जी विधानसभा की कुछ समितियों में भी रहे। पर दोनों शास्त्री जी की चिन्ता करते रहते। और शास्त्री जी भी। ऐसा भावनात्मक अपनापन दुर्लभ ही होगा। रीवा उनका दिल था तो सतना जिगर। शक्ति पाण्डे, मुरलीधर शर्मा, अब्दुल खालिक बच्चा, प्रभाकर सिंह और न जाने कितनों से लेकर नई पीढ़ी के गणेश सिंह, लक्ष्मी यादव, दयानंद कुशवाहा, उनके भक्त और शिष्य।
जोशी जी को जो बात तिवारी जी और शास्त्री जी से अलग करती है वह यह कि जोशी जी इन लोगों की भांति चौबीसों घंटों के नेता नहीं थे। जोशी जी सर्जक थे। इन्हंे कविता से प्यार था। लेख लिखते थे। ज्योतिष की गणना लगाते थे। संस्कृति और परंपराओं को जीते थे। वे दलबंदी, हदबंदी के ऊपर मनुष्य के लिए सोचते थे। निश्चित ही राजनीति के शिखर तक पहुंचने की चाह उनमें रही होगी लेकिन उनके सर्जक ने राजनीति में एक निष्ठ होने ही नहीं दिया। मोह होना और उसका भंग हो जाना यह उनकी प्रवृत्ति मे था। जिन्दा कौमें पांच साल तक इन्तजार नहीं करतीं, लोहिया जी की इस उक्ति को वे जीते थे। लोहिया भी तो सिर्फ एक चुनाव जीते। चुनाव जीतना राजपुरुष का आखिरी पैमाना तो नहीं वे यही मानते थे। जोशी जी भाषा के प्रकाण्ड पंडित थे। हिन्दूी, अंग्रेजी, संस्कृति तीनों विषय लेकर बीए आनर्स किया था। छात्र जीवन और आन्दोलनकारी दौर में भी उन्होने खूब लिखा। विन्ध्यप्रदेश के मर्जर के खिलाफ आन्दोलन के लिए जोशी जी ने जोशीला तराना लिखा था। सन 52 में जब गोली चली थी तो युवाओं का जत्था जोशी जी का ही तराना ‘‘हम नया तराना गाते हैं, हम नया जमाना लाते हैं, हम नई मशालें ले ले के, मुर्दो में जोश जगाते हैं’’ गा रहे थे। जोशी जी का काव्य संग्रह ‘शैल रेखा’ उनके भावुक कवि को उभारता है। लोहिया के वंशधरों में उनकी नसीहते हैं। 90 के बाद से उन्होंने निरंतर लिखना शुरू किया। उनके लेख देशबन्धु के सभी संस्करणों में छपते। कभी कभार तो नवभारत टाइम्स और जनसत्ता सरीखे अखबार भी देशबन्धु से सभार उनके लेख छापते। इन लेखों के तीन संग्रह आए हैं ‘‘कहि न जाय का कहिए, मैं नहीं युग बोलता है और शताब्दी विमर्श। जोशी जी के लेखों में जहां विन्ध्य की संस्कृति व परंपराओं की महक है, वहीं वैश्विक चिन्ता भी। विन्ध्य के पुनरोदय की बात जिस शिद्दत से करते थे उसी गंभीरता से बंर्मा की आन सांग सू की के आन्दोलन की। अराजकता चाहे रीवा शहर की हो या फिलीपीन्स की जहां एक गुन्डे जार्जस्पीट ने संसद को बंधक बना लिया था उन्हें विचलित करती व लेख का विषय बनती। जोशी जैसा व्यक्तित्व दुर्लभ है। मेरी दृष्टि मे वे युगांधार हैं। वे समग्र व्यक्ति थे जिसमें कुछ हिस्सा राजनेता का था तो कुछ सर्जक, कलाकार का कुछ संसारी मनुष्य का तो कुछ दैवीय आभा का। वे एक में ही सब कुछ थे व एक में ही सबकुछ साधे भी रहे। वे विरले थे दिखने में, लिखने में और बोलने में। एक महामानव जो व्यक्तित्वों की त्रिवेणी का संगम था और जिसके सानिध्य में मुझ जैसे कई अकिंचन दीक्षित हुए उसी तरह जैसे प्रयाग में स्नान कर श्रद्धालु पवित्र होते हैं।
नमन!

















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