Saturday, December 31, 2016

वक़्त की चौखट पर लोकशाही की दस्तक

Jayram Shukla
 ईश्वर से प्रार्थना है कि नए वर्ष में हर व्यक्ति की आत्मा में बैठे हनुमानजी जाग्रत हो, और भ्रष्टाचार, अनाचार, विषमता, कुशासन की लंका का दहन करने के लिए समर्थवान बनें, देश में सुराज और रामराज्य नेताओं के नहीं आम आदमी के पराक्रम से ही संभव होगा।
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य ह संयोग ही है कि नववर्ष यानी कि 2014 दिन-तिथि के हिसाब से वर्ष 1947 को दोहराने जा रहा है। वह आजादी का वर्ष था। तुर्को, मुगलों और अंग्रेजों की कोई पौने दो हजार वर्ष की गुलामी-दर-गुलामी से मुक्ति का वर्ष। 2014 में प्रवेश के पूर्व लोकशाही ने वक्त की चौखट पर दस्तक दी है। महाभारत से लेकर स्वतंत्रता संग्राम की साक्षी रही दिल्ली ने इस बार लोकसंग्राम की जीत देखा है। पिछले साल के ये दिन देश भर के लिए अवसाद व पीड़ादायक रहे। दिल्ली के वक्षस्थल पर एक बालिका का वीभत्स शीलहरण हुआ था। इसके बाद पूरा वर्ष दैवीय और मानवीय प्रकोप में डूबता उतरता रहा। शुभारंभ के संकेत ही आगत का हाल बता देते हैं। उत्तराखण्ड के केदार-बद्रीनाथ में जो प्रलय हुआ वह दिल दहलाने वाला रहा। यह हिमालय पर्वत श्रृंखला की शिखाओं से निकली एक चेतावनी थी। प्रकृति के साथ अन्याय करोगे तो वह प्रतिशोध लेगी। प्रकृति का प्रतिशोध भी समदर्शी होता है। वह चीन्ह-चीन्ह कर उपहार या दण्ड नहीं देती। सबको एक नजर से देखती है। पता नहीं इस घटना से सत्ता और व्यवस्था प्रतिष्ठानों ने क्या सबक लिया। पर संकेत और संदेश दोनों स्पष्ट हैं। भौतिक विलास और कथित औद्योगिकीकरण के विस्तार के नाम पर यदि हमने प्रकृति के उपादानों का शोषण किया तो सजा भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। प्रलय या संहार की तिथि व अवधि तय नहीं होती। यह हमारे सुकर्मो व दुष्कर्मो पर निर्भर होता है। उत्तराखण्ड जैसे आपदा प्रकृति न दोहराए इसके लिए हम व्यवस्था और सत्ता प्रतिष्ठानों को सचेत करें। नए वर्ष में नदी- जंगल-पर्वत, झरने, जीव-जन्तु इन सबके संरक्षण की दिशा में एक जन आन्दोलन खड़ा होना चाहिए।
वर्ष 2013 ने कई सामाजिक व्याधियों की सजर्री भी की है।
फोड़ा जब शरीर के अन्दर होता है तो लहकता है, उसे ठीक करने के लिए चीरा लगाकर मवाद का निकाला जाना जरूरी है।
आसाराम और नारायण सांई जैसी व्याधियां भी सामने आईं। महिला सशक्तीकरण और सूचना क्रांति ने रंग दिखाया। अत्याचार, दमन और दुष्कर्म को सामान्य तौर पर जज्ब करने वाली बहादुर महिलाएं सामने आईं, आसाराम और तरूण तेजपाल जैसे रसूखदारों के नकाब को नोचकर समाज के सामने उनकी असलियत को लाया।
अब शेष काम न्यायालय का है। न्याय तंत्र ने भी पूरे वर्ष संजीदगी का परिचय दिया। चाराघोटालें में लालू यादव और जगन्ननाथ मिश्र सहित कई अफसर हकीमों को सजा और उनकी जेल यात्रा ने सामान्यजन में न्यायतंत्र की प्राणप्रतिष्ठा की और इस मिथक को तोड़ा कि जेल और सजा सिर्फ गरीब लोगों के लिए हैं। पिछले वर्षो की भांति भ्रष्टाचार के नित नए खुलासे होते रहे। सीमा पर पाकिस्तान और चीन की हरकतों को कायरों की भांति नजरंदाज करना वर्ष भर सालता रहा लेकिन जाते-जाते अपनी राजनय देयवायानी प्रकरण में अमेरिका को अपने जिस तेवर से परिचित कराया उससे विश्वास जागा है कि अब सीमा पर भी इसी तरह दिलेरी का परिचय देते हुए अपने एक के बदले उनके चार मारेंगे भले ही यह काम उनके घर में घुस कर करना पड़े।
मीडिया साल भर अतिरेकी बना रहा। जरूरी मुद्दों से ज्यादा गैर जरुरी मुद्दे उसके टीआरपी का सनसेक्स बढ़ाते रहे। मीडिया ने साल भर नरेन्द्र मोदी की पालकी ढोई। कभी नकली लालकिला तो कभी गत्ते के सेट वाले संसद के मंच से मोदी दहाड़ते रहे। टीवी मीडिया कई गुना ज्यादा एम्प्लीफाई कर उनकी दहाड़ को चिग्घाड़ बनाकर दर्शकों को परोसता रहा। कारपोरेट मीडिया भी लोकशाही की ताकत के आगे नतमस्तक दिखा। दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का झडू उसकी टीआरपी के लिए मजबूरी बन गया। किन्तु -परन्तु की तमाम आवांछनीय टिप्पणियों के बावजूद भी। चार राज्यों के चुनाव परिणाम ने 128 साल पुरानी कांग्रेस के अधोपतन का रास्ता तैयार किया। अर्थशाी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मौन और मजबूरी भी देखा तो उपाध्यक्ष राहुल गांधी की प्रेस क्लब में लोकायुक्त बिल को लेकर खिलदण्डई भी। बाहें चढ़ाकर उनका चीख-चिल्लाहट भरा भाषण युवाओं को लुभा नहीं सका और न ही सिर पर तगाड़ी लेकर मनरेगा की मजदूरी वाली तस्वीर ने गरीबों को जोड़ा। बंगाल की शेरनी ममता बनर्जी के भी ताजिए ठंडे रहे। मुलायम-नीतिश की तीसरे मोर्चे की परिकल्पनाएं हवाओं में तैरती-उतराती रहीं। उम्मीद के विपरीत मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा की हैट्रिक ने राजनीति की नई परिभाषा गढ़ी। नई परिभाषा इस मायने में कि आम आदमी आज भी विकास से ज्यादा सम्मान और अपनेपन के लिए लालायित है। प्रदेश सरकार पर भ्रष्टाचार के लगे तमाम आरोपों के बावजूद शिवराज की लाजर्र दैन लाइफ इमेज बनीं और वे गरीब तथा वंचित लोगों के दिल में ऐसे बैठे कि नया चुनावी इतिहास रच दिया। वे प्रदेश की जनता के सबसे बड़े कजर्दार हैं, उनके सिर पर जगाई गई उम्मीदों और अपेक्षाओं का गुरूतर बोझ है। अपनी विनम्रता व सहजता की बदौलत भविष्य की असीम संभावनाओं के कपाट खोले हैं। उनकी कथनी और करनी में भेद नहीं रहा तो यकीन मानिए वे निकट भविष्य में देश के यशस्वी व सफल नेताओं की श्रेणी में शामिल होने के सान्निकट हैं।
गुजरा हुआ साल युवाओं और महिलाओं की नवचेतना, संघर्ष और नए आगाज का साल रहा। यह साल आम आदमी के वजूद को पुर्नव्याख्यायित करने का भी रहा। डेढ़ साल पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के आन्दोलन को राजनीतिक दलों ने जिस तरह मजाक में बदलने की कोशिश की थी दिल्ली में आम आदमी ने उसका माकूल जवाब दे दिया। राजनीति अब परम्परागत दलों, घरानों और रसूखदारों की बपौती नहीं रही और न ही किसी के नाम इसका पट्टा है। आम आदमी को केन्द्रीय थीम पर रखकर अरविन्द केजरीवाल ने जिस तरह राजनीतिक नवाचार को यथार्थ के धरातल पर उतारा है वह हताश अवाम को नया रास्ता दिखाता है। डेढ़ साल की पुरानी पार्टी ने 128 साल के राजनीतिक संस्था को उसके वजूद की चुनौती दी है। दिल्ली की जीत और ‘आप’ तमाम राजनीतिक दलों के लिए सबक है। यह सबक वंश परम्परा और यथास्थितिवाद तोड़ने का है। नए साल में सभी राजनीतिक दल ‘आप’ को सामने रखकर या तो आत्म अवलोकन के लिए विवश होंगे या फिर अपने लिए अधोगति की राह चुनेंगे। आम आदमी और उसकी मुश्किलें केन्द्र में होंगी। कोई ढोंग नहीं चलेगा। देश के दो फीसदी लोगों के कारपोरेटी प्रायोजन से 98 फीसदी लोगों की बात करने वाले लोगों का भी ढ़ोंग सामने आएगा। क्योंकि हर सूबे में एक अरविन्द केजरीवाल के जन्म लेने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।
हम उम्मीद करते हैं कि नया वर्ष आम आदमी की मुश्किलों को कम करने वाला होगा। मंहगाई पर लगाम लगेगी और भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ी गई निर्णायक जंग मुकाम तक पहुंचेगी। मई 2014 में दिल्ली के सिहासन पर एनडीए का राज होता है, तीसरा मोर्चा आता है या फिर यूपीए करिश्मा करती है यह अभी इतिहास के गर्भ में है। लेकिन खुशी की बात यह कि आम आदमी की अपनी ताकत का अहसास उसी तरह होना शुरू हुआ है जैसा कि जामवंत के याद दिलाने पर हनुमान जी को हुआ था। ईश्वर से प्रार्थना है कि नए वर्ष में हर व्यक्ति की आत्मा में बैठे हनुमानजी जाग्रत हो, और भ्रष्टाचार, अनाचार, विषमता, कुशासन की लंका का दहन करने के लिए समर्थवान बनें, देश में सुराज और रामराज्य नेताओं के नहीं आम आदमी के पराक्रम से ही संभव होगा। नए वर्ष की असीम शुभकामनाएं।

धर्मवीर भारती को दुष्यंतजी का गजलपत्र

दुष्यंत कुमार की गजल एवम कवितायें जनांदोलनों का नारा बनकर आज भी उद्वेलित करती हैं . विधानसभाओं और संसद में सबसे ज्यादा उद्धरित किये जाने वाले कोई कवि हैं तो वे दुष्यंतजी ही है. १सितम्बर १९३३ को राजपुर नावड़ा बिजनोर में जन्मे दुष्यंतजी की कर्मभूमि भोपाल रही. ३० दिसंबर १९७५ को वो हमारे बीच नहीं रहे. लेकिन हिंदी शाइरी में जो स्थान उनका है उसके निकट तक कोई नहीं पहुंच पाया. दुष्यंतजी को गंभीर और क्रांतिधर्मी कवि मन जाता है लेकिन उनमे हास्य और मनोविनोद भी भरपूर था. उनका समग्र साहित्य ऑनलाइन व् पुस्तकों, चाहने वालो की जुबांनो पर है लेकिन मनोविनोद से भरा एक गजलपत्र आज धर्मवीर भारती की पत्रकारिता पढ़ते हुए सामने आया. यह गजलपत्र उन्होंने भारतीजी को पारिश्रमिक बढ़ाने को लेकर लिखा था जो धर्मयुग के २३ मार्च १९७५ के अंक में छपा था. धर्मवीर भारती का जवाब भी गजल में ही दिया। पढ़िए.
पत्थर नहीं है आप तो पसीजिए हुजूर
संपादकी हक़ तो अदा कीजिये हुजूर
अब जिंदगी के साथ जमाना बदल गया
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिये हुजूर
कल मैकदे में चैक दिखाया था आपका
वो हँस के बोले इससे जहर पीजिये हुजूर
शायर को सौ रुपये मिले जब गजल छपे
हम जिन्दा रहे ऐसी जुगत कीजिये हुजूर
लो हक़ की बात की तो उखाड़ने लगे हैं आप
शी..होठ सील के बैठ गए लीजिये हुजूर
निवेदक ..दुष्यंत कुमार
(धर्मवीर भारती का जवाब )
जब आपका गजल में हमें खत मिला हुजूर
पढ़ते ही यकबयक ये कलेजा हिला हुजूर
ये धर्मयुग हमारा नहीं सब का पत्र है
हम घर के आदमी हैं हमी से गिला हुजूर
भोपाल इतना महगा शहर तो नहीं कोई
महँगी का बांधते हैं हवा में किला हुजूर
पारिश्रमिक का क्या है बढ़ा देंगे एक दिन
यह तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुजूर
शाइर को यहाँ भूख ने ही किया है यहाँ अजीम
हम तो जमा रहे हैं वही सिलसिला हुजूर
आपका.. धर्मवीर भारती
(मेरे मित्र साकेत दुबे की पुस्तक,..धर्मवीर भारती ःपत्रकारिताके सिद्धान्त..में इस वाकये का दिलचस्प तरीके से उल्लेख है )

कवि रघुवीर सहाय..अधिनायक

आज हिन्दी के मूरधन्य सपादक व यशस्वी कवि रघुवीर सहाय की पुण्यतिथि है। वे दिनमान के संपादक रहे,दूसरे तार सप्तक के प्रमुख कवि, जिन्हें 1984 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला 30 दिसम्बर 1990 मे उनका निधन हो गया। फिरपढ़िए उनकी एक सर्वकालिक कविता।
अधिनायक
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राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा,उनके
तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।
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पटवाजी ने राजनीति के नए प्रतिमान गढ़े

पटवाजी नहीं रहे। भगवान ने उनके महाप्रयाण का वही दिन नियत किया जो कुशाहाऊ ठाकरे का था। 28 दिसम्बर को हम ठाकरे जी की पुण्यतिथि मनाते हैं।
मध्यप्रदेश में भाजपा का जो रसूख है वह ठाकरे जी की बदौलत लेकिन उसकी धार तेज की सुंदरलाल पटवा ने। पटवाजी ने अविभाजित मध्यप्रदेश में ऐसी तेजस्वी
पीढ़ी गढ़ी जो पिछले एक दशक से निर्विघ्न सत्ता की बागडोर संभाले हुए हैं। चाहे शिवराज सिंह हों या रमन सिंह, ब्रजमोहन अग्रवाल हों या कैलाश विजयवर्गीय सबमें पटवा की छाप दिखती है। नब्बे के चुनाव में भारतीय जनता युवा मोर्चा से निकलकर चुनाव के जरिए जो पीढ़ी विधानसभा पहुंची उसकी मेधा
की सच्ची परख यदि किसी ने की वो पटवा जी ही थे।आइएएस की तर्ज पर आप इसे नब्बे का बैच भी कह सकते हैं।
1941 में राज्य प्रजामण्डल से राजनीति की शुरुआत करने वाले पटवा जी 1942 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े। इसके बाद उनका ध्येय ही संगठन हो
गया। मालवा में संघ और संगठन की जमीन तैयार करने में भले ही कितने दिग्गज रहे हों पर पटवाजी ही वहां के पोस्टर ब्याय रहे। मुझे पटवा जी को देखने
सुनने का अवसर 82-83 के आस-पास मिला। तब मैं प्रशिक्षु पत्रकार था। पुरानी विधानसभा की पत्रकार दीर्घा से सदन की कार्रवाई देखना और उसेअखबार में रिपोर्ट करना एक अद्भुद् अनुभूति थी। विपक्ष के नेता के रूप
में पटवा जी जब सरकार पर हमला बोलते थे, तब ट्रेजरी बेंच स्तब्ध रह जाता था। अभी भी लोग मानते हैं कि 80-85 का समय प्रतिपक्ष की राजनीति का
स्वर्णिम दौर था जिसकी अगुआई पटवाजी के हाथों में थी। पटवाजी ने प्रतिपक्ष की राजनीति की एक मर्यादा और नीति निर्देशक सिद्धांत गढे़। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह पर इतने तीखे हमले (जिसमें चुरहट लाटरी भी शामिल
था) करते थे, इसके बावजूद भी उनके और अर्जुन सिंह की मित्रता के रिश्तों
की कहानी सत्ता के गलियारों से गली-कूंचों तक सुनी जाती थी। प्रतिपक्ष की
राजनीति का वह दौर ‘बिलो द बेल्ट’ हिट करने का नहीं था। मैं पटवाजी का मुरीद था लेकिन तब तक कोई संवाद या पहचान जैसी बात नहीं थी। अवसर मिला और
उसके कारण बने ठाकरे जी। 90 के विधानसभा चुनाव के पहले रीवा में भाजपा की प्रदेश कार्यसमिति होनी थी। रीवा के जिला भाजपाध्यक्ष थे कौशल प्रसाद
मिश्र। ठाकरे जी को दिल्ली से आना था इलाहाबाद के रास्ते। कुछ ऐसा संयोग बना कि ठाकरे जी को लेने मुझे इलाहाबाद जाना पड़ा। वहां से ठाकरे जी को
लेकर रीवा चले। रास्ते में ही परिचय हुआ कि मैं कार्यकर्ता नहीं पत्रकार हूं। मैं गया भी इसीलिए था ताकि ठाकरे जी से लंबा इन्टरव्यू कर सकूं।यहां राजनिवास में पटवाजी, कैलाश जोशी, विक्रम वर्मा, नंद कुमार साय जैसे
दिग्गज उनकी अगवानी में खड़े थे। ठाकरे जी के साथ जीप से उतरने पर सबकी नजरे मेरी ओर भी गई। ठाकरे जी के हांथ में मेरा सौंपा हुआ अखबार था,
जिसमें चुनाव के मद्दे नजर मेरा एक विश्लेषण था। बैठक के बाद मुझे पता चलाकि ठाकरे जी उस अखबार को लहराते हुए नेताओं से कहा था कि ये अखबार ठीक
लिखता है कि हम आगे बढे नहीं है अपितु कांग्रेस पीछे हटी है इसलिए भाजपाका माहौल दिख रहा है अभी काफी कुछ करने की जरूरत है। शाम को राजनिवास में
पटवाजी से मिलने पहुंचा। वे बड़े स्नेह से मिले और बोल-शुकल जी बहुत करारा लिखते हो।
पटवाजी की भाषण शैली के मुरीदों की संख्या लाखों में है। किस्सागोई के साथ धारदार व्यंग आम जनता पर सीधे उतर जाता था। पटवाजी के भाषणों को जस
का तस उतार दिया जाए तो उसके तथ्य-कथ्य कई व्यंगकारों की रचना पर भारी पड़ेगे। विन्ध्य में जब वे आते थे तो उनके स्वाभाविक निशाने पर अर्जुन
सिंह वे श्रीनिवास तिवारी होते थे। और जिस शानदार व्यंगशैली से इन परप्रहार करते थे कि सुनने वाले सालों-साल तक गुदगदाते रहते थे। बहरहाल 90 में भाजपा की सरकार बनी और पटवाजी ने दूसरी बार मुख्यमंत्री की शपथ ली। इससे पहले वे प्रदेश की जनता
पार्टी की सरकार में एक महीने (20 जनवरी 80 से 17 फरवरी 80 तक) के मुख्यमंत्री रह चुके थे। यह चुनाव किसानों की कर्जामाफी और हर खेत को
पानी हर हाथ को काम के नाम पर लड़ा गया था। मुख्यमंत्री बनने के अगले महीने ही वे रीवा आए और मनगवां में किसान ऋणमुक्ति सम्मेलन में एक वृद्ध
महिला को ऋणमुक्ति प्रमाण पत्र सौंपते हुए उसके पांव छू लिए। यह तस्वीर उनके पूरे कार्यकाल तक सरकारी प्रचार प्रसार में आयकानिक बनी रही।
‘नब्बे की प्रदेश भाजपा सरकार नए खून व नए जोश से लबरेज थी। प्रतिपक्ष में थे पं.श्यामाचरण शुक्ल, अर्जुन सिंह, मोतीलाल बोरा, कृष्णपाल सिंह और
भी कई दिग्गज जो विधानसभा में चुनकर पहुंचे थे। श्री शुक्ल नेता प्रतिपक्ष थे। विपक्ष ने एक वर्ष के भीतर ही पटवा सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा। मैंने ऐसी ऐतिहासिक बहस विधानसभा में पहली बार
देखी-सुनी। पटवाजी ने जवाब के लिए कमान युवा विधायको को सौंपी जिसके अगुआ थे शिवराज सिंह चौहान। प्रतिपक्षी कांग्रेस के दिग्गजों के जवाब में
शिवराज सिंह चौहान ने एक घंटे का भाषण दिया मुझे याद है कि श्यामाचरण और अर्जुन सिंह की ओर इंगित करते हुए श्री चौहान ने यह कहते हुए अपने भाषण
पर विराम दिया था-सूपा बोले तो बोले, चलनी क्या बोले जिसमें छेदय छेद हैं। प्रस्ताव गिर गया। सत्रावसान के रात्रि भोज में पटवा जी को प्रणाम करने का मौका मिला तो बरबस ही पूछ बैठा शिवराज जी जैसे मेधावी युवा नेता को मंत्रिमण्डल से बाहर क्यों रखा है दादा? पटवा जी बोले-शुकल जी अपना शिवराज लंबी रेस का घोड़ा है देखते जाइए। पटवाजी की पारखी नजर के सभी कायल थे। यह सर्वज्ञात है कि शिवराज जी को
मुख्यमंत्री बनाने की पृष्ठिभूमि पटवाजी ने ही तैय्यार की। पटवाजी से आखिरी संवाद पिछले वर्ष तब हुआ जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के दस वर्ष पूरा होने पर मुझे विशेष सामग्री तैय्यार करने का काम मिला उसमें पटवाजी
का इन्टरव्यू भी शामिल था। पटवाजी ने राजनीति के बारे में बड़े ही दार्शनिक अंदाज में कहा था ‘यहां कोई किसी का गुरू या चेला नहीं होता, सब अपने प्रारब्ध और कर्म के हिसाब से आगे बढ़ते हैं। राजनीति में कभी कोई
किसी की जगह नहीं ले सकता सबको अपनी अपनी जगह बनाना पड़ती है। पटवाजी मध्यप्रदेश की राजनीति की आत्मा में सदा-सदा के लिए चस्पा रहेंगे सरकार
किसी की आए-जाए उनकी स्थापनाएं, आदर्श और सिद्धान्त सबके लिए अपरिहार्य रहेंगे।
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Wednesday, December 28, 2016

सारा सिस्टम सड़ा है लल्लू।

सबसे ऊपर रिश्वत खोरी
फिर चोरों की सीनाजोरी,
कालेधन से अधिक टीसती
सरहंगों की आदमखोरी।
रिश्वत के उद्गम हैं दफ्तर
रहमत*के दुश्मन हैं दफ्तर,
 फाईलों के वग्जाल में
लल्लू भटके दरदर दरदर।।
बड़े झमेले नमो नमो
कैसे झेलें नमो नमो,
बेइमानों की पूरी पल्टन
एक अकेले नमो नमो।
कबतक झेलें पपलूजी
ये चम्पू चेले पपलूजी,
बड़ेदिनो..की लेलें छुट्टी,
..कन्चे खेलें पपलूजी।
लछमी मैय्या..उल्लू के
ता..ता थैय्या उल्लू के
कालिख को चूने से पोतें,
बड़के भैय्या उल्लू के।
राष्ट्र तुम्ही पे टिका है लल्लू
राष्ट्र तुम्ही पे फिदा है लल्लू
राष्ट्रप्रेम पर बलि बलि जाओ,
यही करम पे लिखा है लल्लू।
धर दो जेंटा* पपलू जी
बासी डेटा पपलू जी,
अगडम बगडम फुर्रे फू
चुप रह बेटा पपलू जी।। *गठ्ठर
करिया उज्जर आधे आधे
इक दूजे को साधे साधे,
लादे लादे अच्छे दिन को
मस्त वजीर पस्त हैं प्यादे।
खटिया माचा पपलू के
खेल तमाशा पपलू के,
जुमलेबाजों अबतो सुनलो
गालिब चाचा पपलू के।
एक अकेला अड़ा है लल्लू
ताल ठोक के खड़ा है लल्लू,
ताक रहे थे चोर तिजोरी
सारा सिस्टम सड़ा है लल्लू।
तन में हो नासूरी फोड़ा
पड़ जाता है मरहम थोड़ा,
चीर फाड़ से ही अब होगा
सारा सिस्टम चंग निगोड़ा।
बेइमानों पर ये बमबम है
या बेइमानों की बमबम है
लल्लू पूछे जगधर कक्का
कौनसा ज्यादा कौनसा कम है
छापे वालों का छापा है
छापे वालों पर छापा है,
पार हुए सब नोट गुलाबी
छापों के ऊपर छापा है।
खादी औ मखमल से रिश्ते
फिर भी वही निराले हैँ,
उधर बरसते नोट गुलाबी
पिटते इधर दिवाले हैं।
दिन पचास हो रहे हैं लल्लू
नाहक ही रो रहे हैँ लल्लू,
काला पीला बना गुलाबी
वे झकास हो रहे हैं लल्लू

लल्लू ....मैंने सपना देखा
सोने का तन अपना देखा,
उनको उंगली करते करते
तना अंगूठा अपना देखा।


जो बीती सो बीत गया
मन का बोझा रीत गया,
कल.तुझसे अब कल निपटेंगे
आज..हमारा जीत गया।

अनुपमजी हमेशा जीवंत हैं पानी की एक एक बूँद और पर्यावरण की आत्मा में

जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख, और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख.... यशस्वी पिता भवानी प्रसाद मिश्र की इस रचनाधर्मी नसीहत को अपने जीवन में उतारकर चरितार्थ करने वाले अनुपम मिश्र आज पितृधाम प्रस्थान कर गए। अनुपमजी एक ऐसे दुर्लभ मनस्वी थे जो ताउम्र प्रकृति की रक्षा के लिए तपस्यारत रहे. जन जन में जल, जंगल व जमीन की समझ बोते रहे। ..आज भी खरे हैं तालाब .. जल संरक्षण की गीता है। और इसकी शुरुआत ही रीवा जिले के मेरे गाँव बड़ी हर्दी के पडोसी जोडौरी गाँव के तालाबों के उद्धरण के साथ शुरू होती है। उनका सानिध्य मेरे लिए सौभाग्य का विषय रहेगा। उनकी बड़ी बहन नंदिता मिश्र जिन्हें हम सब सम्मान से नंदी दीदी के नाम से जानते हैं, कुछ वर्षों तक आकशवाणी रीवा में थी। उन्ही दिनों उनका रीवा आना जाना रहा। इससे पहले वे खेसरी दाल के प्रकोप की अध्ययन यात्रा में रीवा आ चुके थे, पनासी गांव के कई बदनसीब आदिवासयों की व्यथा को विश्वव्यापी बना चुके थे। बहरहाल ...मैंने अपने गावों के तालाबों के बारे में चर्चा की थी, जो पारंपरिक जल प्रबंधन पर थी। बाद में जब ..आज भी खरे हैं तालाब. ... छपकर आयी तो जोडौरी के तालाबो का उल्लेख दिखा, बाद में पता चला कि अनुपमजी तो चुपके से उस गावँ हो भी आये थे। दूसरा संस्मरण भास्कर के दिनों का है। तब राकेश दीवानजी भी वहीं थे। पर्यावरण दिवस पर सम्पादकीय पेज में विशेष सामग्री देनी थी। राकेशजी के सुझाव पर एक आलेख अनुपम जी से बातचीत के आधार पर तैयार किया, ..धरती माँ को बुखार है. ..लेख छपने के बाद अनुपम जी ने फोन पर बताया की पूरे देश से इस लेख पर बड़ी प्रतिक्रियाएं आईं। आखिरी भेंट सचिन जी के बुलावे पर सुखतवा मीडिया कॉन्क्लेव में हुई। वहां उन्होंने राजस्थान के पारंपरिक जलप्रबंधन पर इतना बढ़िया व्याख्यान दिया की हमलोग वैसे ही बंधे रहे जैसे पहली के बच्चे कोई परिकथा सुनकर बंधे रहते हैं। गंभीर से गंभीर विषयों को ऐसे समझाना और प्रस्तुत करना उनकी संप्रेषणीय कला थी. मैं ये मानता हूँ की देश ही नहीं दुनिया भर में प्रकृति पर इतनी पवित्र समझ रखने वाला शायद ही कोई दूसरा होगा। गाँधी को जीने वाले भारत माता के यशस्वी पुत्र अनुपमजी हमेशा जीवंत रहेंगे पानी की एक एक बूँद और देश के पर्यावरण की आत्मा में.

.नासमझी के चालीस साल.. चन्द्रप्रताप तिवारी

आज विन्ध्य के भी एक महापुरुष का जन्मदिन है वे हैं पुण्य स्मरणीय चन्द्रप्रताप तिवारी। आचार्य नरेंद्र देव के अनुयायी श्री तिवारी ने यमुना प्रसाद शास्त्री के साथ मिलकर समाजवाद की अलख जगाई। वे गोवा मुक्ति संग्राम के प्रमुख सेनानी रहे। उनकी जीवटता का यह प्रमाण है कि जहाँ उन्होंने सामंतवाद के खिलाफ मोर्चा खोला वहीं सत्तर के दशक मे कांग्रेस सरकार मे मंत्री रहते हुए बिड़ला जैसे औद्योगिक घराने से लोहा लिया और सरकार को न चाहते हुए भी वन विभाग की बांस नीति बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। उनकी धाक का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पहले आम चुनाव मे कांग्रेस की प्रचंड लहर और नेहरू के करिश्मे के बावजूद सीधी क्षेत्र की लोकसभा समेत विधानसभा की प्रायः सभी सीटों मे सोशलिस्ट पार्टी को विजय मिली। प्रतिपक्ष के विधायक और मंत्री के रूप में विधान सभा मे उनकी बहस और भाषण उन्हें उच्च कोटि के संसदीयवेत्ता की अग्रिम पंक्ति में खड़ा करते हैं। जीवन के उत्तरार्ध में वे सर्वोदयी हो गए। अस्सी के दशक मे जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था तब वे वहाँ शांति की अलख जगाते पदयात्रा कर रहे थे। उन दिनों वे देशबन्धु मे छापने के लिए मुझे प्रायः वहाँ की स्थितियों पर पत्र भेजते थे। रीवा प्रवास पर वे मेरे घर .दफ्तर जरूर आते थे प्रिय बेटी प्रो.उमा परौहा के साथ, आज वे भी हमारे बीच नहीं है। उनकी पुस्तक ..नासमझी के चालीस साल.. मध्यप्रदेश की समकालीन राजनीति का महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

रामल खान और दुरगा फार

नाम को लेकर बकवादी दौर के बीच दो दिलचस्प वाकए बरबस याद आ गये। एक अब्दुल गफ्फार का दुरगाफार और फिर दुरगा बन जाना, दूसरा रामलखन का रामल खान। शुरुआत दूसरे वाकए से, यह पूर्व विधायक और हमारे प्रिय धाकड़ नेता रामलखन शर्मा जी से जुड़ा है। शर्मा जी ने सिरमौर से दूसरा चुनाव मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की टिकट पर जीता। वे यमुना शास्त्री के साथ जनता दल छोड़़ कर आए थे। प्रदेश के इकलौते माकपा विधायक होने के नाते देश भर की माकपा में उनका नाम था। पालित ब्यूरो के सभी नेता उन्हें क्रांतिकारी मानते थे। यद्यपि शर्मा जी खुले बदन रुद्राक्ष की मालाएं पहनते हैँ और सिर्फ उपन्ना ओढते हैं। यह वेश उनके कम्युनिस्टी होने के आड़े कभी नहीं आया। बहरहाल कहानी यह कि वे शास्त्रीजी के साथ कलकत्ता से पार्टी मीटिंग में भाग लेकर लौटे। दूसरे दिन मैं हालचाल लेने शास्त्री जी से मिलने.. वसुधैव कुटुम्बकम् ..पहुंचा। शास्त्री जी मनोविनोद के मूड मे थे। उन्होंने अपने अंदाज़ में कहा.. मालुम जयराम.. अपना रामलखन तो बंगाल में रामल खान हो गया। सभी उसे इसी नाम से संबोधित कर रहे थे..। मैने कहा.. शास्त्री जी यह उच्चारण का फेर होगा। वे बोले नहीं भाई.. फिर तो कई लोग इसे मिस्टर खान कहकर संबोधित करने लगे। तो रामलखन की क्या प्रतिक्रिया रही मैंने पूछा.. शास्त्री जी दुर्लभ ठहाका लगाते हुए बोले.. अरे वो तो बिना मेहनत के एक झटके मे ही सेकुलर हो गया..भाई।
अब अब्दुल गफ्फार के बारे में। ये हमारे ग़ांव यानी कि रीवा जिले के बड़ी हर्दी गांव के प्रतिष्ठित मुसलमान थे। बचपन से ही हम लोग इन्हें जयहिन्द करके नमस्कार करते थे। मुसलमान हिन्दुओं से कैसे अलग होते हैं, यह पढ़ीलिखी दुनिया मे आकार जाना। अम्मा (माता जी को हम यही कहते थे) को वे काकी कहते थे। उनकी दर्जीगिरी व बिसातखाने की दूकान थी। अम्मा को जब कोई सामान मगाना होता तो वे यही कहती.. जा दुरगाफार के इहां से ले आवा। हम बहुत दिनों तक दुरगा और दुर्गा में कोई फर्क नहीं कर पाए। गांव के प्रायः लोग उन्हें यही कहते थे। कई बार तो सम्मान मे लोग इन्हें दुरगा भैया भी कह दिया करते थे। अब्दुल गफ्फार को गांव की हमारी साझी संस्कृति ने दुरगाफार बना कर शामिल कर लिया। उनके बड़े बेटे अब्दुल सुभान हम बच्चों के लिए सिउभान बने रहे। अब काफी कुछ बदल गया। मुसलमहटी अलग. बहमनहटी अलग। गांव मे अब ऐसी कई यादों के पुरातत्वीय अवशेष बचे हैं। इस बीच एक मित्र ने पते की बात पूछी ..... सैफ करीना यदि अपने बेटे का नाम रसखान अली पटौदी रख देते तो क्या देश भर में नरियल फूटते..?

भ्रम के चौराहे पर चरणदास

 नहीं की जो चोर ने पिछले जनम में की थी। ‘चोर’ गुरू द्वारा दी गई प्रतिज्ञाओं की रस्सी में बंधा था, और चाहकर भी न सोने की थाली में खा सका, न रानी के साथ सो सका, न आधा राज भोग सका और न ही हाथी की सवारी कर सका। ईमानदार मूर्ख था इसलिए बेमौत मारा गया। ईमादारी भर ही अपने आप में काफी नहीं होती। चतुराई के मुलम्मे में वह धारदार बन जाती है। चरणदास साहु ने गुरू की प्रतिज्ञाओं की रस्सी को तड़ से तोड़ दी। ये गुरू लोग होते ही ऐसे हैं जब खुद कुछ करने का माद्दा नहीं बचता तो चेलों का भी रास्ता बंद करने की कोशिश करते हैं। चरणदास साहु की आत्मा में बैठा पुराने जनम का चोर पुरानी बातों को याद-कर-कर के तड़प रहा था। काश मैं भी उस खूसट गुरू की बाते न मानता। रानी को भोगता, सोने की थाली में खाता, राज करता और हाथी पर चढ़ता। चरणदास की आत्मा के अन्दर बैठे नए जनम के साहु और पुराने जनम के चोर में खटपट होने लगी। चोर ने कहा- सुन बे साहु तूने गुरू को दगा दिया है। पॉलटिक्स में जाने और पार्टी बनाने से मना करने के बाद भी तू नहीं माना। सीधे नरक में जाएगा नरक में। साहु ने जवाब दिया- तू निरा चोर का चोर ही रहा। जमाने की नजाकत को समझ और मेरे में विलीन हो जा। चोर होते हुए भी जो तेरी ईमानदारी की ठसक है न चरणदास को तंग किए जा रही है। अब देख कुर्सी तक पहुंचने के लिए लोग कितनी मशक्कत करते हैं। धनबल, जनबल, बाहुबल, दारू, मुर्गा, कम्बलों के बीच से कुर्सी तक का रास्ता निकलता है। तेरी ईमानदारी की हनक ने चरणदास को कुर्सी तक तो पहुंचा दिया, अब आगे तो मुझे कुछ भोगने दे। चरणदास ने लालबत्ती लेने से मना कर दिया। गारद भगा दी। फट्टे पे सोएगा, आटो से चलेगा। न खाएगा, न खाने देगा। चरणदास के भीतर इन दिनों चोर और साहु के बीच का अन्तरद्वंद्व चल रहा है। ये कैसा विरोधाभास है कि जो चोर है वह चरणदास को ईमानदारी से नहीं डिगने दे रहा, और जो साहु है वह भौतिकवादी है सब कुछ वह भोगना चाहता है, जो चोर पुराने जन्म में नहीं भोग पाया और प्रतिज्ञाबद्ध होकर बेमौत मारा गया।
‘आधुनिक भारत का भविष्य पुराण’ के रचयिता आचार्य रामलोटन शास्त्री, भैय्याजी को चरणदास के नए अवतार के भीतर चल रहे द्वंदात्मक भौतिकवाद का अनुशीलन व मीमांशात्मक विश्लेषण करते हुए उसका मर्म समझा रहे थे। भैय्याजी को कथा की यह क्लासकी वैसे ही पल्ले नहीं पड़ रही थी जैसे कि शास्त्रीय संगीत में रागों का आरोह-अवरोह व तानपुरे की तान सामान्य श्रोताओं की समझ में नहीं आती। शास्त्री के शास्त्रज्ञान से कनफ्यूज भैय्याजी बोले- आचार्य जी अब सीधे-सीधे मुद्दे पर आइए और भविष्य बताइए कि नए जमाने का ये चरणदास राज भोग पाएगा कि नहीं? रामलोटन शास्त्री ने अपने दर्शन शास्त्र की व्याख्याओं को रहल की पोथी में दबाते हुए कहा- भैय्याजी दरअसल बात ये है- कि एक बार एक किन्नर को बच्चा पैदा हुआ। किन्नर को बच्चा! आश्चर्य!! खबर देश-दुनिया की सुर्खियों में छा गई। शहर का कोई भी आदमी यकीन नहीं कर पा रहा था पर यह सत्य था, सौ प्रतिशत। किन्नरों में उल्लास छा गया। सब नाचने गाने लगे, जश्न मनाने लगे। फिर सवाल खड़ा हुआ कि यह बच्चा जाना किस नाम से जाएगा। इसकी वल्दियत क्या लिखी जाए। किन्नरों ने पंचायत बुलाई। अन्तत: तय हुआ की इस बच्चे पर सबका समान हक है। यह सभी किन्नरों के साझे पराक्रम का प्रतिफल है। अब दूसरा सवाल खड़ा हुआ कि सबसे पहले इसके प्यार दुलार का हक किसे? सर्व सहमति से यह भी तय हो गया कि वरिष्ठता के क्रम में एक-के बाद एक सभी इसे अपना प्यार दुलार दें। उमड़े हुए वात्सल्य से विह्वल किन्नरों ने उस नवजात शिशु को अपने-अपने बाहों में भर कर चूमना-चाटना प्यार करना शुरू कर दिया। इस क्रम में किसी को होश ही नहीं रहा कि शिशु को जन्मघुट्टी भी दें, दूध भी पिलाएं। प्यार के ज्वार में सिर्फ शिशु का चेहरा दिखता उसकी भूख की चिल्लाहट नहीं, उसके पालन पोषण की जरूरत नहीं। सब उसे एक-एक करके प्यार करते गए। और जब आखिरी किन्नर की बारी आई तो उसके हाथ नवजात शिशु का पार्थिव शरीर था। किन्नरों के समवेत प्यार के ज्वार में नवजात शिशु का दम उखड़ गया। शिशु की उम्र बरहों संस्कार तक भी नहीं खिंच पाई। भैय्याजी को इस कहानी में छिपा हुआ गूढ़ अर्थ समझ में आ गया। शास्त्रीजी का चरणरज माथे पर लगाते हुए भैय्याजी फिर पुराने टॉपिक पर आ गए बोले- शास्त्रीजी उस चरणदसवा का क्या होगा जो स्वर्ग से सीधे भारत भूमि में अवतरित हुआ और सुधार में लग गया। शास्त्रीजी ने उवाचा - अभी कुछ नहीं हुआ, फिलहाल तेल देखो तेल की धार देखो। एक के बाद एक आए और चले गए। इस देश को सीधे भगवान चलाते हैं, वही आगे भी चलाते रहेंगे, चरणदास जैसे लोग आते और जाते रहेंगे। प्रभु ऐसी ही लीला रचाते रहेंगे जैसे कि किन्नरों के साथ रचाई। राजनीति अपनी लय-गति पर चलेगी, और उसे न आज कोई समझ पाया न भविष्य में ही समझ पाएगा क्योंकि वह ‘तड़ित की तरह चंचल व भुजंग की भांति कुटिल है।’


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नाम चाहे तैमूर रखो या टनाटनदास क्या फर्क पड़ता है

वेशक नाम में कुछ भी नहीं धरा है। गधे को घोड़ा कह देने से वह घोड़ा नहीं
हो जाता और न आम, इमली। गधा गधा ही रहेगा और आम आम ही। चरित्र नहीं
बदलता। कपूत का नाम कुलदीपक रखो तो क्या उजियारा करने लगेगा कुलवंश का,
नहीं। उसे जो करना है, वही करेगा। हमारे गांव में एक टनाटनदास थे। लोग
उनके नाम का बड़ा मजाक उड़ाते थे। तंग आकर उसने एक दिन तय किया कि क्यों
न अपना नाम बदल लें। सो नाम की खोज में वह गांव से निकल पड़े। जैसे ही वह
गांव के सीवान से बाहर आये एक अर्थी जाती दिखी। राम नाम सत्य बोलने वाली
भीड़ में से किसी से पूछा कि ये जो मर गया है इसका नाम क्या है...? बताया
गया अमरचंद। नाम अमरचंद फिर भी मर गये? आगे बढ़े। भरी दोपहरी एक युवक खेत
की मेड़ पर घास छीलता मिल गया। नए नाम की तलाश में निकले टनाटनदास ने
उससे पूछा भई तुम्हारा नाम क्या है? चेहरे से पसीना पोछते हुए युवक ने
जवाब दिया क्यों..? क्या करोगे...धनपत नाम है मेरा! वाह नाम धनपत छील रहे
घांस। टनाटन आगे बढ़े, प्यास लगी तो एक झोपड़ी के पास रुक गए। एक महिला
कंडे थाप रही थी। टनाटन अपनी प्यास को दबाते हुए पूछ ही लिया माई
तुम्हारा नाम क्या है....गोबर सने हांथों से आंचल समेटते हुए महिला
बोली-लक्षमी, लक्षमी देवी। टनाटन उल्टे पांव अपने गांव लौट पड़े और
ब्योहार की चौपाल में जमा गांव के लोगों को जवाब दिया।
अमरचंद तो मर गए धनपत छोलै घांस,
लक्षमी देवी कंडा थापै सबसे भले टनाटनदास।
सो नाम को लेकर माथा पच्ची क्यों? अब सैफ और करीना को वो उजबेकिस्तानी
लंगड़ा लुटेरा तैमूरलंग का नाम अच्छा लगा तो लगा। आपको क्या दिक्कत।
तैमूर के बाप ने जब तैमूर नाम दिया होगा तो उसे थोड़ी न मालुम कि इस
लंगड़े के नाम से एक दिन दुनिया रोएगी। पुलस्त्य तो सीधे ब्रम्हा के
पुत्र थे। काफी कुछ सोच विचार के, ग्रह, नक्षत्र, मुहूर्त देखकर नाम रखा
होग, रावण, कुंभकरण, विभीषण। पर रावण-रावण निकला तो इसमें नाम का क्या
दोष? और विभीषण तो प्रभु भक्त था। अन्याय के खिलाफ भाई के खिलाफ खड़ा
होने वाला। पर मैने आज तक किसी का नाम विभीषण नहीं सुना। क्यों? इसलिए कि
घर का भेदी था। घाती...। लोक ने माना कि विभीषण ने भाई से गद्दारी की।
गद्दारी के लिए विभीषण पर्यायवाची हो गया।
देखें तो नाम में कुछ भी नहीं है और नाम में ही सब कुछ। नाम जब तक अक्षर
शब्द रहता है तब तक यांत्रिक लेकिन जब कोई चरित्र उसे ओढ़ लेता है या
उसका विलयन किसी चरित्र के साथ हो जाता है तो मांत्रिक। हमारी समूची पूजा
पद्धति ही नाम पर टिकी है चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम। मानस में तुलसी ने
जाते-जाते लिखा-कलयुग केवल नाम अधारा। नाम जपने से ही मोक्ष। वाकय--चाहे
ईश्वर का जपो, नेता का या अपने बॉस का। जपो फल सुनिश्चित मिलेगा। छोटके
नेता जब भाषण देते हैं तो उसकी पार्टी के विघ्नसंतोषी गिनते रहते हैं कि
उसने बड़के नेता (जो कि हर पार्टी का पहला और आखिरी अधिनायक हुआ करता है)
का कितने बार नाम लिया। बायदवे नाम लेने से भूल गया तो तत्काल उसके भाषण
की क्लिपिंग ऊपर, आलाकमान के पास। और यदि नाम ही रटता रहा तो मीडिया को
ब्रीफिंग...देखा साले के पास नाम के अलावा कोई एजेन्डा नहीं। अइसे भी
गदहे नेता बनने चले।
कोई गारंटी नहीं कि ज्ञानेन्द्र ज्ञानी हों या शेर बहादुर शेर दिल। पर
नाम रखने वाले मां-बाप रखते तो इसी कामना के साथ है। अपने देश में
मनुष्यों के सबसे ज्यादा नाम देवी-देवताओं और ईश्वर के हैं। पर किसी को
कोई उलाहना दे सकता है मसलन -रामलखन मुंह कूकुर कस। यदि नाम के विपरीत
आचरण किया तो भी नहीं छोड़ते भाई लोग- पढ़ै-लिखै न एकौ रती नाम धराइन
विद्यारथी। फिर भी महत्ता नहीं होती तो नाम नहीं होता। अजामिल कसाई का
पशुओं का वध करके उनका मांस बेचना पेशा था। एक महात्मा ने उसे जुगत बताई
कि बेटे का नाम नारायण रख दो। इसी बहाने प्रभु का नाम भी जपते रहोगे हो
सकता है तर जाओ। अजामिल ने वही किया। जब मरने लगा तो नारायण-नारायण कह कर
बेटे को बुलाने लगा। बेटा आया कि नहीं यह तो नहीं मालुम पर भागवत् में
कथा है कि भगवान नारायण-नारायण सुनकर दौड़े आए और अजामिल को अपने धाम ले
गए। नाम की महत्ता हमारी संस्कृति मे है, इस्लामी संस्कृति में भी। आम
तौर पर ऐसे नाम नहीं रखे जाते जो इतिहास को दागदार बनाते हैं। अपने कृत्य
और आचरण से। पुराने जमाने के चरित्र, कंस, रावण, कालिनेमि की बात कौन करे
मध्ययुगीन जयचंद और मीरजाफर तक के नाम पर किसी भी बच्चे का नाम नहीं
सुना। इन्हें लोक ने खारिज कर दिया। एक और मिसाल लें फिल्मों में खल
चरित्र निभाने वाले शानदार अभिनेता प्राण के नाम पर दशकों किसी बच्चे का
नाम नहीं रखा गया।
अब सैफ-करीना ने अपने बेटे का नाम तैमूर रखा है तो सोच समझ कर ही रखा
होगा। यह नकारात्मक छवियों की प्राणप्रतिष्ठा का दौर है। आए दिन कहीं से
सुनने को मिलता है कि हम गोडसे की जयंती मनाएंगे, मंदिर बनवाएंगे। यदि
गांधी को राष्ट्रपिता माना है व उनके आदर्श हमारे आचरण के नीति निर्देशक
सिद्धान्त हैं तो उनकी हत्या करने वाला भी तो वैसा ही है जैसा कि रक्तपात
करनें शहर फंूकने वाला दुर्दान्त तैमूर।
बेटे को राक्षस का नाम दें या देवता का यह मां-बाप का सर्वाधिकार है।
कानूनन कोई बंदिश नहीं। बंदिश तो लोक लाज की लगती है। लोकलाज की मर्यादा
उसे मानने वाले पर निर्भर है। यदि समाज में ऐसा तबका बढ़ रहा है जो नकारा
चरित्रों पर ही अपनी छवि देखता है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन? यह यक्ष
प्रश्न है। पत्थर की मूर्ति कपड़े से नहीं ढंकी होती फिर भी हमारी नजर
श्रद्धा से उसमें दैवीय भाव देखती है। जब वही मूर्ति किसी तस्कर के जरिये
देश या विदेश के किसी एय्याश धनुपशु के ड्राइंग रूम में सजती है तो
कामुकी हो जाती है। यह नजरों का फेर है। यानी कि अपना-अपना माइन्ड सेट।
फिर किसी का नाम चाहे तैमूर रखो या टनाटनदास क्या फर्क पड़ता है।

जिनके व्यक्तित्व की कोई थाह नही

आज की उथली राजनीति और हल्के नेताओं के आचरण के बरक्स देख्ों तो अटल बिहारी बाजपेयी के व्यक्तित्व की थाह का आंकलन कर पाना बड़े से बड़े प्रेक्षक, विश्लेषक और समालोचक के बूते की बात नहीं। बाजपेयी जी सुचिता की राजनीति के जीवंत प्रतिमूर्ति हैं। स्वतंत्रता के बाद जिन नेताओं ने अपने व्यक्तित्व की समग्रता की वजह से देशवासियों को प्रभावित किया उनमें से सिर्फ दो ही नाम उभरकर आते हैं, पंडित जवाहर लाल नेहरु और अटल बिहारी बाजपेयी। लेकिन इन दोनों के बीच श्रेष्ठता का चुनाव करना पड़े तो नि:संदेह मैं अटल जी को ही चुनूूंगा। 
हमारी पीढ़ी के लिए इसकी साफ वजह है। पहली तो यह कि पं. नेहरु के बारे में सुना है और अटलजी को विकट परिस्थितियों के साथ दो-दो हाथ करते देखा है। पंडितजी स्वप्नदर्शी थ्ो जबकि अटलजी ने भोगे हुए यथार्थ को जिया है। एक अत्यंत धनाढ्य वकील के वारिस पंडितजी पर महात्मा गांधी जैसे महामानव की छाया थी और आभामंडल में स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास। जबकि अटल जी की राजनीति गांधी जी के हत्या के बाद उत्पन्न ऐसी विकट परिस्थितियों में शुरु हुई, जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और जनसंघ के खिलाफ शंका का वातावरण निर्मित व प्रायोजित किया गया था। 
जन के सरोकारों के प्रति अटलजी का सपर्पण, निष्ठा ने ही साठ के दशक में ही प्रतिपक्ष की राजनीति का शुभंकर बना दिया था। बचपन में हम लोग सुनते थ्ो- 'अटल बिहारी दिया निशान, मांग रहा है हिन्दुस्तान’... जो संघ या जनसंघ को पसंद नहीं करता था उसके लिए भी अटल जी आंखों के तारे थ्ो। वे 1957 में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर से उपचुनाव के जरिए लोकसभा पहुंचे और 1977 तक लोकसभा में भारतीय जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे। अजातशत्रु शब्द यदि किसी के चरित्र में यथारूप बैठता है तो वे श्रीअटल जी हैं। दिग्गज समाजवादियों से भरे प्रतिपक्ष में उन्होंने अपनी लकीर खुद तैयार की। वे पंडित नेहरु और डॉ. लोहिया दोनों के प्रिय थ्ो। 
वाक्चातुर्य और गांभीर्य उन्हें संस्कारों में मिला वे श्रेष्ठ पत्रकार व कवि थ्ो ही। इस गुण ने राजनीति में उन्हें और निखारा। अपने कविरूप का हुंकार भरते हुए उन्होंने परिचयात्मक श्ौली में कहा था- 'मेरी कविता जंग का ऐलान है, पराजय की प्रस्तावना नहीं, वह हारे हुए सिपाही का नैराश्य निनाद नहीं, वह आत्मविश्वास का जयघोष है।’ अटलजी ने एक राजनेता के तौर पर भी इसी भावना को आत्मसात किया। उनकी वक्तव्य कला मोहित और मंत्रमुग्ध करने वाली थी, जो जनसंघ व कालांतर में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं में करो या मरो, संभावनाओं और उत्साह का जोश जगाती रही। 
वह प्रसिद्ध उक्ति न सिर्फ भाजपा के कार्यकर्ताओं को याद है बल्कि अटलजी के चाहने वालों को आज भी उद्धेलित करती है। 6 अप्रैल 198० में भारतीय जनता पार्टी के गठन के समय मुंबई अधिवेशन में उद्घोष किया- 'अंध्ोरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा।’ इसके बाद से कमल खिलता ही रहा। यह अटलजी की दूरदृष्टि ही कि उनकी पहल पर पार्टी के सिद्धांतों में 'गांधीवादी समाजवाद के प्रति निष्ठा’ का नीति निर्देशक तत्व जोड़ा गया। अटल जी को इस बात का आभास था कि यदि भाजपा को राजनीतिक अस्पृश्यता के बाहर करना है तो गांधी के मार्ग पर चलना होगा। वे 1977 के जनता पार्टी के गठन और उसके अवसान से आहत तो थ्ो पर उनका अनुमान था कि बिना गठबंधन के 'दिल्ली’ हासिल नहीं हो सकती। सत्ता की भागीदारी के जरिए फैलाव की नीति, कम्युनिष्टों से उलट थी, इसलिए वीपी सिंह सरकार में भी भाजपा को शामिल रखा जबकि यह गठबंधन भी लगभग जनता पार्टी पार्ट-टू ही था। 198० में जनसंघ घटक दोहरी सदस्यता के सवाल पर जनता पार्टी से बाहर निकला था और 1989 की वीपी सिंह की जनमोर्चा सरकार से राममंदिर के मुद्दे पर। 
1996 में 13 दिन की सरकार ने भविष्य के द्बार खोले तब अटलजी ने अपने मित्र कवि डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन जी की इन पंक्तियों को दोहराते हुए खुद की स्थिति स्पष्ट की थी। ''क्या हार में क्या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं। संघर्ष पथ में जो मिले, यह भी सही, वह भी सही।’’ ये पंक्तियां अटल जी के समूचे व्यक्तित्व के साथ ऐसी फिट बैठीं कि आज भी लोग इन पंक्तियों का लेखक अटल जी को ही मानते हैं न कि सुमन जी को। अटल जी ने गठबंधन धर्म का जिस कुशलता और विनयशीलता के साथ निर्वाह किया शायद ही अब कभी ऐसा हो। वे गठबंधन को सांझे चूल्हे की संस्कृति मानते थ्ो। एक रोटी बना रहा, दूसरा आटा गूंथ रहा तो कोई सब्जी तैयार कर रहा है, वह भी अपनी श्ौली में और फिर मिश्रित स्वाद न अहम् न अवहेलना। अटलजी का व्यक्तित्व ऐसा ही कालजयी था कि असंभव सा दिखने वाला 24 दलों का गठबंधन हुआ, जिसमें पहली बार दक्षिण की पार्टियां शामिल हुईं। 1998 में जयललिता की हठ से एक वोट से सरकार गिरी। अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा जनभावनाएं संख्याबल से पराजित हो गईं, हम फिर लौटेंगे और एक वर्ष के भीतर ही चुनाव में वे लौटे भी और इतिहास भी रचा।
अपने राजनीतिक जीवन में अटल जी ने कभी किसी को लेकर ग्रंथि नहीं पाली। पार्टी में उनकी विराटता के आगे सभी बौने थ्ो फिर भी उन्होंने आडवाणी जी और मुरली मनोहर जोशी को अपने बराबर समझा। कई मसलों में तो वे आडवाणी के सामने भी विनत हुए। गुजरात के राजधर्म का वही चर्चित मसला था जिसमें वे चाहकर भी नहीं जा पाए। सन् 71 में बांग्ला विजय पर उन्होंने इंदिरा जी मुक्तकंठ से प्रशंसा की। लोकसभा में रणचंडी कहकर इंदिरा जी का अभिनंदन किया। उन्हीं इंदिरा जी ने आपातकाल में बाजपेयी जी को जेल में भी डाला। मुझे नहीं मालुम कि अटल जी ने कभी किसी पर व्यक्तिगत टिप्पणी की या राजनीतिक हमले किए हों। राष्ट्रहित की बातें उन्होंने दूसरों से भी लीं। इंदिरा जी के परमाणु कार्यक्रम को उन्होंने आगे बढ़ाया व 1998 की तेरह महीने की सरकार के दरम्यान पोखरण विस्फोट किए। किसी की परवाह किए बगैर देश को वैश्विक शक्ति बनाने में लगे रहे। 
यह संयोग नहीं बल्कि दैवयोग है कि उनका जन्म ईसा मसीह के जन्म के दिन हुआ। 'वही करुणा, वही क्षमा’ पर सिला भी वही ईशु की भांति ही मिला। दिल्ली से लाहौर तक बस की यात्रा की, जवाब में कारगिल मिला। पाकिस्तान को छोटा भाई मानते हुए जब-जब भी गले लगाने की चेष्ठा की, उसका परिणाम उल्टा ही मिला। अक्षरधाम, संसद हमला, एयर लाइंस अपहरण, इन सबके बावजूद भी उन्होंने जनरल परवेज मुशर्रफ को आगरा वार्ता के लिए बुलाया। लगता है अचेतन मन से आज भी अटल जी यही कह रहे हों कि हे प्रभु उन्हें माफ करना क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। 
 - लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। 

भाजपा की पैनीधार थे पटवा जी

पटवाजी नहीं रहे। भगवान ने उनके महाप्रयाण का वही दिन नियत किया जो कुशाहाऊ ठाकरे का था। 28 दिसम्बर को हम ठाकरे जी की पुण्यतिथि मनाते हैं। मध्यप्रदेश में भाजपा का जो रसूख है वह ठाकरे जी की बदौलत लेकिन उसकी धार तेज की सुंदरलाल पटवा ने। पटवाजी ने अविभाजित मध्यप्रदेश में ऐसी तेजस्वी पीढ़ी गढ़ी जो पिछले एक दशक से निर्विघ्न सत्ता की बागडोर संभाले हुए हैं। चाहे शिवराज सिंह हों या रमन सिंह, ब्रजमोहन अग्रवाल हों या कैलाश विजयवर्गीय सबमें पटवा की छाप दिखती है। नब्बे के चुनाव में भारतीय जनता युवा मोर्चा से निकलकर चुनाव के जरिए जो पीढ़ी विधानसभा पहुंची उसकी मेधा की सच्ची परख यदि किसी ने की वो पटवा जी ही थे। आइएएस की तर्ज पर आप इसे नब्बे का बैच भी कह सकते हैं।
1941 में राज्य प्रजामण्डल से राजनीति की शुरुआत करने वाले पटवा जी 1942 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े। इसके बाद उनका ध्येय ही संगठन हो गया। मालवा में संघ और संगठन की जमीन तैयार करने में भले ही कितने दिग्गज रहे हों पर पटवाजी ही वहां के पोस्टर ब्याय रहे। मुझे पटवा जी को देखने सुनने का अवसर 82-83 के आस-पास मिला। तब मैं प्रशिक्षु पत्रकार था। पुरानी विधानसभा की पत्रकार दीर्घा से सदन की कार्रवाई देखना और उसे अखबार में रिपोर्ट करना एक अद्भुद् अनुभूति थी। विपक्ष के नेता के रूप में पटवा जी जब सरकार पर हमला बोलते थे, तब ट्रेजरी बेंच स्तब्ध रह जाता था। अभी भी लोग मानते हैं कि 80-85 का समय प्रतिपक्ष की राजनीति का स्वर्णिम दौर था जिसकी अगुआई पटवाजी के हाथों में थी। पटवाजी ने प्रतिपक्ष की राजनीति की एक मर्यादा और नीति निर्देशक सिद्धांत गढे़। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह पर इतने तीखे हमले (जिसमें चुरहट लाटरी भी शामिल था) करते थे, इसके बावजूद भी उनके और अर्जुन सिंह की मित्रता के रिश्तों की कहानी सत्ता के गलियारों से गली-कूंचों तक सुनी जाती थी। प्रतिपक्ष की राजनीति का वह दौर ‘बिलो द बेल्ट’ हिट करने का नहीं था। मैं पटवाजी का मुरीद था लेकिन तब तक कोई संवाद या पहचान जैसी बात नहीं थी। अवसर मिला और उसके कारण बने ठाकरे जी। 90 के विधानसभा चुनाव के पहले रीवा में भाजपा की प्रदेश कार्यसमिति होनी थी। रीवा के जिला भाजपाध्यक्ष थे कौशल प्रसाद मिश्र। ठाकरे जी को दिल्ली से आना था इलाहाबाद के रास्ते। कुछ ऐसा संयोग बना कि ठाकरे जी को लेने मुझे इलाहाबाद जाना पड़ा। वहां से ठाकरे जी को लेकर रीवा चले। रास्ते में ही परिचय हुआ कि मैं कार्यकर्ता नहीं पत्रकार हूं। मैं गया भी इसीलिए था ताकि ठाकरे जी से लंबा इन्टरव्यू कर सकूं। यहां राजनिवास में पटवाजी, कैलाश जोशी, विक्रम वर्मा, नंद कुमार साय जैसे दिग्गज उनकी अगवानी में खड़े थे। ठाकरे जी के साथ जीप से उतरने पर सबकी नजरे मेरी ओर भी गई। ठाकरे जी के हांथ में मेरा सौंपा हुआ अखबार था, जिसमें चुनाव के मद्दे नजर मेरा एक विश्लेषण था। बैठक के बाद मुझे पता चलाकि ठाकरे जी उस अखबार को लहराते हुए नेताओं से कहा था कि ये अखबार ठीक लिखता है कि हम आगे बढे नहीं है अपितु कांग्रेस पीछे हटी है इसलिए भाजपा का माहौल दिख रहा है अभी काफी कुछ करने की जरूरत है। शाम को राजनिवास में पटवाजी से मिलने पहुंचा। वे बड़े स्नेह से मिले और बोल-शुकल जी बहुत करारा लिखते हो।
पटवाजी की भाषण शैली के मुरीदों की संख्या लाखों में है। किस्सागोई के साथ धारदार व्यंग आम जनता पर सीधे उतर जाता था। पटवाजी के भाषणों को जस का तस उतार दिया जाए तो उसके तथ्य-कथ्य कई व्यंगकारों की रचना पर भारी पड़ेगे। विन्ध्य में जब वे आते थे तो उनके स्वाभाविक निशाने पर अर्जुन सिंह वे श्रीनिवास तिवारी होते थे। और जिस शानदार व्यंगशैली से इन पर प्रहार करते थे कि सुनने वाले सालों-साल तक गुदगदाते रहते थे। ‘चुरहट के कुंवर कन्हैय्या’ और ‘तिवारी जी का डबल बेड’’ वाले दो जुमले आज ही किसी ने सुनाए, पटवाजी को याद करते हुए। बहरहाल 90 में भाजपा की सरकार बनी और पटवाजी ने दूसरी बार मुख्यमंत्री की शपथ ली। इससे पहले वे प्रदेश की जनता पार्टी की सरकार में एक महीने (20 जनवरी 80 से 17 फरवरी 80 तक) के मुख्यमंत्री रह चुके थे। यह चुनाव किसानों की कर्जामाफी और हर खेत को पानी हर हाथ को काम के नाम पर लड़ा गया था। मुख्यमंत्री बनने के अगले महीने ही वे रीवा आए और मनगवां में किसान ऋणमुक्ति सम्मेलन में एक वृद्ध महिला को ऋणमुक्ति प्रमाण पत्र सौंपते हुए उसके पांव छू लिए। यह तस्वीर उनके पूरे कार्यकाल तक सरकारी प्रचार प्रसार में आयकानिक बनी रही।
‘नब्बे की प्रदेश भाजपा सरकार नए खून व नए जोश से लबरेज थी। प्रतिपक्षा में थे पं.श्यामाचरण शुक्ल, अर्जुन सिंह, मोतीलाल बोरा, कृष्णपाल सिंह और भी कई दिग्गज जो विधानसभा में चुनकर पहुंचे थे। श्री शुक्ल नेता प्रतिपक्ष थे। विपक्ष ने एक वर्ष के भीतर ही पटवा सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा। मैंने ऐसी ऐतिहासिक बहस विधानसभा में पहली बार देखी-सुनी। पटवाजी ने जवाब के लिए कमान युवा विधायको को सौंपी जिसके अगुआ थे शिवराज सिंह चौहान। प्रतिपक्षी कांग्रेस के दिग्गजों के जवाब में शिवराज सिंह चौहान ने एक घंटे का भाषण दिया मुझे याद है कि श्यामाचरण और अर्जुन सिंह की ओर इंगित करते हुए श्री चौहान ने यह कहते हुए अपने भाषण पर विराम दिया था-सूपा बोले तो बोले, चलनी क्या बोले जिसमें छेदय छेद हैं। प्रस्ताव गिर गया। सत्रावसान के रात्रि भोज में पटवा जी को प्रणाम करने का मौका मिला तो बरबस ही पूछ बैठा शिवराज जी जैसे मेधावी युवा नेता को मंत्रिमण्डल से बाहर क्यों रखा है दादा? पटवा जी बोले-शुकल जी अपना शिवराज लंबी रेस का घोड़ा है देखते जाइए।
पटवाजी की पारखी नजर के सभी कायल थे। यह सर्वज्ञात है कि शिवराज जी को मुख्यमंत्री बनाने की पृष्ठिभूमि पटवाजी ने ही तैय्यार की। पटवाजी से आखिरी संवाद पिछले वर्ष तब हुआ जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के दस वर्ष पूरा होने पर मुझे विशेष सामग्री तैय्यार करने का काम मिला उसमें पटवाजी का इन्टरव्यू भी शामिल था। पटवाजी ने राजनीति के बारे में बड़े ही दार्शनिक अंदाज में कहा था ‘यहां कोई किसी का गुरू या चेला नहीं होता, सब अपने प्रारब्ध और कर्म के हिसाब से आगे बढ़ते हैं। राजनीति में कभी कोई किसी की जगह नहीं ले सकता सबको अपनी अपनी जगह बनाना पड़ती है। पटवाजी मध्यप्रदेश की राजनीति की आत्मा में सदा-सदा के लिए चस्पा रहेंगे सरकार किसी की आए-जाए उनकी स्थापनाएं, आदर्श और सिद्धान्त सबके लिए अपरिहार्य रहेंगे।