दुष्यंत कुमार की गजल एवम कवितायें जनांदोलनों का नारा बनकर आज भी उद्वेलित करती हैं . विधानसभाओं और संसद में सबसे ज्यादा उद्धरित किये जाने वाले कोई कवि हैं तो वे दुष्यंतजी ही है. १सितम्बर १९३३ को राजपुर नावड़ा बिजनोर में जन्मे दुष्यंतजी की कर्मभूमि भोपाल रही. ३० दिसंबर १९७५ को वो हमारे बीच नहीं रहे. लेकिन हिंदी शाइरी में जो स्थान उनका है उसके निकट तक कोई नहीं पहुंच पाया. दुष्यंतजी को गंभीर और क्रांतिधर्मी कवि मन जाता है लेकिन उनमे हास्य और मनोविनोद भी भरपूर था. उनका समग्र साहित्य ऑनलाइन व् पुस्तकों, चाहने वालो की जुबांनो पर है लेकिन मनोविनोद से भरा एक गजलपत्र आज धर्मवीर भारती की पत्रकारिता पढ़ते हुए सामने आया. यह गजलपत्र उन्होंने भारतीजी को पारिश्रमिक बढ़ाने को लेकर लिखा था जो धर्मयुग के २३ मार्च १९७५ के अंक में छपा था. धर्मवीर भारती का जवाब भी गजल में ही दिया। पढ़िए.
पत्थर नहीं है आप तो पसीजिए हुजूर
संपादकी हक़ तो अदा कीजिये हुजूर
अब जिंदगी के साथ जमाना बदल गया
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिये हुजूर
कल मैकदे में चैक दिखाया था आपका
वो हँस के बोले इससे जहर पीजिये हुजूर
शायर को सौ रुपये मिले जब गजल छपे
हम जिन्दा रहे ऐसी जुगत कीजिये हुजूर
लो हक़ की बात की तो उखाड़ने लगे हैं आप
शी..होठ सील के बैठ गए लीजिये हुजूर
निवेदक ..दुष्यंत कुमार
(धर्मवीर भारती का जवाब )
जब आपका गजल में हमें खत मिला हुजूर
पढ़ते ही यकबयक ये कलेजा हिला हुजूर
ये धर्मयुग हमारा नहीं सब का पत्र है
हम घर के आदमी हैं हमी से गिला हुजूर
भोपाल इतना महगा शहर तो नहीं कोई
महँगी का बांधते हैं हवा में किला हुजूर
पारिश्रमिक का क्या है बढ़ा देंगे एक दिन
यह तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुजूर
शाइर को यहाँ भूख ने ही किया है यहाँ अजीम
हम तो जमा रहे हैं वही सिलसिला हुजूर
आपका.. धर्मवीर भारती
(मेरे मित्र साकेत दुबे की पुस्तक,..धर्मवीर भारती ःपत्रकारिताके सिद्धान्त..में इस वाकये का दिलचस्प तरीके से उल्लेख है )
संपादकी हक़ तो अदा कीजिये हुजूर
अब जिंदगी के साथ जमाना बदल गया
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिये हुजूर
कल मैकदे में चैक दिखाया था आपका
वो हँस के बोले इससे जहर पीजिये हुजूर
शायर को सौ रुपये मिले जब गजल छपे
हम जिन्दा रहे ऐसी जुगत कीजिये हुजूर
लो हक़ की बात की तो उखाड़ने लगे हैं आप
शी..होठ सील के बैठ गए लीजिये हुजूर
निवेदक ..दुष्यंत कुमार
(धर्मवीर भारती का जवाब )
जब आपका गजल में हमें खत मिला हुजूर
पढ़ते ही यकबयक ये कलेजा हिला हुजूर
ये धर्मयुग हमारा नहीं सब का पत्र है
हम घर के आदमी हैं हमी से गिला हुजूर
भोपाल इतना महगा शहर तो नहीं कोई
महँगी का बांधते हैं हवा में किला हुजूर
पारिश्रमिक का क्या है बढ़ा देंगे एक दिन
यह तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुजूर
शाइर को यहाँ भूख ने ही किया है यहाँ अजीम
हम तो जमा रहे हैं वही सिलसिला हुजूर
आपका.. धर्मवीर भारती
(मेरे मित्र साकेत दुबे की पुस्तक,..धर्मवीर भारती ःपत्रकारिताके सिद्धान्त..में इस वाकये का दिलचस्प तरीके से उल्लेख है )
nice post
ReplyDeleteAricent Off-Campus Drive 2017
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